Day 5

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☆ब्रह्माकुमारीज के सात दिनों का कोर्स :पांचवां दिन☆

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"कलियुग अभी बच्चा नहीं है बल्कि बुढ़ा हो गया है"

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kalyug abhi bachcha nahi bhuda ho gaya he

इसका विनाश निकट है और शीघ्र ही सतयुग आने वाला है | आज बहुत से लोग कहते है , "कलियुग अभी बच्चा है अभी तो इसके लाखो वर्ष और है शस्त्रों के अनुसार अभी तो सृष्टि के महाविनाश में बहुत काल रह गया है |" परन्तु अब परमपिता परमात्मा कहते है की अब तो कलियुग बूढ़ा हो चुका है | अब तो सृष्टि के महाविनाश की घडी निकट आ पहुंची है | अब सभी देख भी रहे है की यह मनुष्य सृष्टि काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार की चिता पर जल रही है | सृष्टि के महाविनाश के लिए एटम बम, हाइड्रोजन बम तथा मूसल भी बन चुके है | अत: अब भी यदि कोई कहता है कि महाविनाश दूर है, तो वह घोर अज्ञान में है और कुम्भकर्णी निंद्रा में सोया हुआ है, वह अपना अकल्याण कर रहा है | अब जबकि परमपिता परमात्मा शिव अवतरित होकर ज्ञान अमृत पिला रहे है, तो वे लोग उनसे वंचित है |

आज तो वैज्ञानिक एवं विद्याओं के विशेषज्ञ भी कहते हैं कि जनसंख्या जिस तीव्र गति से बढ रही है, अन्न की उपज इस अनुपात से नहीं बढ रही है | इसलिए वे अत्यंत भयंकर अकाल के परिणाम स्वरूप महाविनाश कि घोषणा करते है | पुनश्च, वातावरण प्रदुषण तथा पेट्रोल, कोयला इत्यादि शक्ति स्त्रोतों के कुछ वर्षो में ख़त्म हो जाने कि घोषणा भी वैज्ञानिक कर रहे है | अन्य लोग पृथ्वी के ठन्डे होते जाने होने के कारण हिम-पात कि बात बता रहे है | आज केवल रूस और अमेरिका के पास ही लाखो इतने बमों जितने आणविक शस्त्र है उससे अनेक बार इस धरती को खत्म किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, आज का जीवन ऐसा विकारी एवं तनावपूर्ण हो गया है कि अभी करोडो वर्ष तक कलियुग को माना तो इन सभी बातो की ओर आंखे मूंदना ही है परन्तु सभी को याद रहे कि परमात्मा अधर्म के महाविनाश से ही देवी धर्म की पुन: सथापना भी कराते है |

अत: सभी को मालूम होना चाहिए कि अब परमप्रिय परमपिता परमात्मा शिव सतयुगी पावन एवं देवी सृष्टि कि पुन: स्थापना करा रहे है | वे मनुष्य को देवता अथवा पतितो को पावन बना रहे है | अत: अब उन द्वारा सहज राजयोग तथा ज्ञान- यह अनमोल विद्या सीखकर जीवन को पावन, सतोप्रधन देवी, तथा आन्नदमय बनाने का सर्वोत्तम पुरुषार्थ करना चाहिए जो लोग यह समझ बैठे है कि अभी तो कलियुग में लाखो वर्ष शेष है, वे अपने ही सौभाग्य को लौटा रहे है!

अब कलियुगी सृष्टि अंतिम श्वास ले रही है, यह मृत्यु-शैया पर है यह काम, क्रोध लोभ, मोह और अहंकार रोगों द्वारा पीड़ित है | अत: इस सृष्टि की आयु अरबो वर्ष मानना भूल है | और कलियुग को अब बच्चा मानकर अज्ञान-निंद्रा में सोने वाले लोग "कुम्भकरण" है | जो मनुष्य इस ईश्वरीय सन्देश को एक कान से सुनकर दुसरे कान से निकल देते है उन्ही के कान ऐसे कुम्भ के समान है, क्योंकि कुम्भ बुद्धि-हीन होता है|

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"क्या रावण के दस सिर थे, रावण किसका प्रतीक है ?"

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kya ravan ke 10sir the ravan kisaka pratik he

भारत के लोग प्रतिवर्ष रावण का बुत जलाते है। उनका काफी विश्वास है की एक दस सिर वाला रावण श्रीलंका का राजा था, वह एक बहुत बड़ा राक्षस था और उसने श्री सीता का अपहरण किया था। वे यह भी मानते है की रावण बहुत बड़ा विद्वान था इसलिए वे उसके हाथ में वेद, शास्त्र इत्यादि दिखाते है। साथ ही वे उसके शीश पर गधे का सिर भी दिखाते है। जिसका अर्थ वे यह लेते है की वह हठी ओर मतिहीन था लेकिन अब परमपिता परमात्मा शिव ने समझाया है की रावण कोई दस शीश वाला राक्षस ( मनुष्य) नही था बल्कि रावण का पुतला वास्तव में बुराई का प्रतीक है रावण के दस सिर पुरुष और स्त्री के पांच-पांच विकारो को प्रकट करते है। और उसकी तुलना एक ऐसे समाज का प्रतिरूप है जो इस प्रकार के विकारी स्त्री-पुरुष का बना हो इस समाज के लोग बहुत ग्रन्थ और शास्त्र पढे हुए तथा विज्ञान में उच्च शिक्षा प्राप्त भी हो सकते है लेकिन वे हिंसा और अन्य विकारो के वशीभूत होते है । इस तरह उनकी विद्वता उन पर बोझ मात्र होती है। वे उद्दंड बन गए होते है। और भलाई की बातो के लिए उनके कान बंद हो गए होते है। " रावण " शब्द का अर्थ ही है - जो दुसरो को रुलाने वाला है। अत: यह बुरे कर्मो का प्रतीक है, क्योंकि बुरे कर्म ही तो मनुष्य के जीवन में दुःख व् आंसू लाते है अतएव सीता के अपहरण का भाव वास्तव में आत्माओ की शुद्ध भावनाओ ही के अपहरण का सूचक है। इसी प्रकार कुम्भकरण आलस्य का तथा "मेघनाथ" कटु वचनों का प्रतीक है और यह सारा संसार ही एक महाद्वीप है अथवा मनुष्य का मन ही लंका है।

इस विचार से हम कह सकते है की इस विश्व में द्वापरयुग और कलियुग में (अर्थात २५०० वर्षो) "रावण राज्य" होता है क्योंकि इन दो युगों में लोग माया या विकारो के वशीभूत होते है उस समय अनेक पूजा पाठ करने तथा शास्त्र पढने के बाद भी मनुष्य विकारी, अधर्मी बन जाते है रोग ,शोक , अशांति और दुःख का सर्वत्र बोल बाला होता है। मनुष्यों का खानपान असुरो जैसा ( मांस, मदिरा, तामसी भोजन आदि) बन जाता है वे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकारो के वशीभूत होकर एक दुसरे को दुःख देते और रुलाते रहते है। ठीक इसके विपरीत स्वर्ण युग और रजत युग में राम-राज्य था, क्योंकि परमपिता, जिन्हें की रमणीक अथवा सुखदाता होने के कारण " राम" भी कहते है, ने उस पवित्रता, शांति और सुख संपन्न देसी स्वराज्य की पुन: स्थापना की थी उस राम राज्य के बारे में प्रसिद्द है की तब शहद और दूध की नदिया बहती थी और शेर तथा गाय एक ही घाट पर पानी पीते थे।

अब वर्तमान में मनुष्यात्माये फिर से माया अर्थात रावण के प्रभाव में है औद्योगिक उन्नति, प्रचुर धन-धन्य और सांसारिक सुख - सभी साधन होते हुए भी मनुष्य को सच्चे सुख शांति की प्राप्ति नहीं है। घर-घर में कलह- कलेश लड़ाई-झगडा और दुःख अशांति है तथा मिलावट, अधर्म और असत्यता का ही राज्य है तभी तो इसे "रावण राज्य" कहते है।

अब परमात्मा शिव गीता में दिए अपने वचन के अनुसार सहज ज्ञान और राजयोग की शिक्षा दे रहे है और मनुष्यात्माओ के मनोविकारो को ख़त्म करके उनमे देवी गुण धारण करा रहे है ( वे पुन: विश्व में बापू-गाँधी के स्वप्नों के राम राज्य की स्थापना करा रहे है I ) अत: हम सबको सत्य धर्म और निर्विकारी मार्ग अपनाते हुए परमात्मा के इस महान कार्य में सहयोगी बनना चाहिए|

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"मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ?"

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manush jivan ka laksh kya he

मनुष्य का वर्तमान जीवन बड़ा अनमोल है क्योंकि अब संगमयुग में ही वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करके जन्म-जन्मान्तर के लिए सर्वोत्तम प्रारब्ध बना सकता है और अतुल हीरो-तुल्य कमाई कर सकता है।

वह इसी जन्म में सृष्टि का मालिक अथवा जगतजीत बनने का पुरुषार्थ कर सकता है। परन्तु आज मनुष्य को जीवन का लक्ष्य मालूम न होने के कारण वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करने की बजाय इसे विषय-विकारो में गँवा रहा है। अथवा अल्पकाल की प्राप्ति में लगा रहा है। आज वह लौकिक शिक्षा द्वारा वकील, डाक्टर, इंजिनीयर बनने का पुरुषार्थ कर रहा है और कोई तो राजनीति में भाग लेकर देश का नेता, मंत्री अथवा प्रधानमंत्री बनने के प्रयत्न में लगा हुआ है अन्य कोई इन सभी का सन्यास करके, "सन्यासी" बनकर रहना चाहता है। परन्तु सभी जानते है की म्रत्यु-लोक में तो राजा-रानी, नेता वकील, इंजीनियर, डाक्टर, सन्यासी इत्यादि कोई भी पूर्ण सुखी नहीं है। सभी को तन का रोग, मन की अशांति, धन की कमी, प्रकृति के द्वारा कोई पीड़ा, कुछ न कुछ तो दुःख लगा ही हुआ है। अत: इनकी प्राप्ति से मनुष्य जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि मनुष्य तो सम्पूर्ण - पवित्रता, सदा सुख और स्थाई शांति चाहता है।

चित्र में अंकित किया गया है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य जीवन-मुक्ति की प्राप्ति अर्थात वैकुण्ठ में सम्पूर्ण सुख-शांति-संपन्न श्री नारायण या श्री लक्ष्मी पद की प्राप्ति ही है। क्योंकि वैकुण्ठ के देवता तो अमर माने गए है, उनकी अकाल म्रत्यु नही होती; उनकी काया सदा निरोगी रहती है। और उनके खजाने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती इसीलिए तो मनुष्य स्वर्ग अथवा वैकुण्ठ को याद करते है और जब उनका कोई प्रिय सम्बन्धी शरीर छोड़ता है तो वह कहते है कि -" वह स्वर्ग सिधार गया है।" इस पद की प्राप्ति स्वयं परमात्मा ही ईश्वरीय विद्या द्वारा कराते है।

इस लक्ष्य की प्राप्ति कोई मनुष्य अर्थात कोई साधू-सन्यासी, गुरु या जगतगुरु नहीं करा सकता बल्कि यह दो ताजो वाला देव-पद अथवा राजा-रानी पद तो ज्ञान के सागर परमपिता परमात्मा शिव ही से प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग के अभ्यास से प्राप्त होता है।

karoge kab

अत: जबकि परमपिता परमात्मा शिव ने इस सर्वोत्तम ईश्वरीय विद्या की शिक्षा देने के लिए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विद्यालय की स्थापना की है। तो सभी नर-नारियो को चाहिए की अपने घर-गृहस्थ में रहते हुए, अपना कार्य धंधा करते हुए, प्रतिदिन एक-दो- घंटे निकालकर अपने भावी जन्म-जन्मान्तर के कल्याण के लिए इस सर्वोत्तम तथा सहज शिक्षा को प्राप्त करे।

इस विद्या की प्राप्ति के लिए कुछ भी खर्च करने की आवश्यकता नही है, इसीलिए इसे तो निर्धन व्यक्ति भी प्राप्त कर अपना सौभाग्य बना सकते है। इस विद्या को तो कन्याओ, मातातों, वृद्ध-पुरुषो, छोटे बच्चो और अन्य सभी को प्राप्त करने का अधिकार है क्योंकि आत्मा की दृष्टी से तो सभी परमपिता परमात्मा की संतान है।

"अभी नहीं तो कभी नहीं"

वर्तमान जन्म सभी का अंतिम जन्म है। इसलिय अब यह पुरुषार्थ न किया तो फिर यह कभी न हो सकेगा क्योंकि स्वयं ज्ञान सागर परमात्मा द्वारा दिया हुआ यह मूल गीता - ज्ञान कल्प में एक ही बार इस कल्याणकारी संगम युग में ही प्राप्त हो सकता है।

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"निकट भविष्य में श्रीकृष्ण आ रहे है"

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nikat ke bhavish me shrikushn a rahe he

प्रतिदिन समाचार-पत्रों में अकाल, बाड़, भ्रष्टाचार व लड़ाई- झगडे का समाचार पढने को मिलता है। प्रकृति के पांच तत्व भी मनुष्य को दुःख दे रहे है और सारा ही वातावरण दूषित हो गया है। अत्याचार, विषय-विकार तथा अधर्म का ही बोलबाला है। और यह विश्व ही "काँटों का जंगल" बन गया है। एक समय था जबकि विश्व में सम्पूर्ण सुख शांति का साम्राज्य था और यह सृष्टि फूलो का बगीचा कहलाती थी। प्रकृति भी सतोप्रधान थी और किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदाए नही थी। मनुष्य भी सतोप्रधान , दैविगुण संपन्न थे और आनंद ख़ुशी से जीवन व्यतीत करते थे। उस समय यह संसार स्वर्ग था, जिसे सतयुग भी कहते है इस विश्व में समृद्धि,, सुख, शांति का मुख्य कारण था कि उस समय के राजा तथा प्रजा सभी पवित्र और श्रेष्ठाचारी थे इसलिए उनको सोने के रत्न-जडित ताज के अतिरिक्त पवित्रता का ताज भी दिखाया गया है I श्रीकृष्ण तथा श्री राधा सतयुग के प्रथम महाराजकुमार और महाराजकुमारी थे जिनका स्वयंवर के पश्चात् " श्री नारायण और श्री लक्ष्मी" नाम पड़ता है I उनके राज्य में " शेर और गाय" भी एक घाट पर पानी पीते थे, अर्थात पशु पक्षी तक सम्पूर्ण अहिंसक थे। उस समय सभी श्रेष्ठाचारी, निर्विकारी अहिंसक और मर्यादा पुरुषोत्तम थे, तभी उनको देवता कहते है जबकि उसकी तुलना में आज का मनुष्य विकारी, दुखी और अशांत बन गया है। यह संसार भी रौरव नरक बन गया है। सभी नर-नारी काम क्रोधादि विषय-विकारो में गोता लगा रहे है। सभी के कंधे पर माया का जुआ है तथा एक भी मनुष्य विकारो और दुखो से मुक्त नहीं है।

अत: अब परमपिता परमात्मा, परम शिक्षक, परम सतगुरु परमात्मा शिव कहते है, "हे वत्सो ! तुम सभी जन्म-जन्मान्तर से मुझे पुकारते आये हो कि - हे प्रभो, हमें दुःख और अशांति से छुडाओ और हमें मुक्तिधाम तथा स्वर्ग में ले चलो। अत: अब मैं तुम्हे वापस मुक्तिधाम में ले चलने के लिए तथा इस सृष्टि को पावन अथवा स्वर्ग बनाने आया हु। वत्सो, वर्तमान जन्म सभी का अंतिम जन्म है अब आप वैकुण्ठ ( सतयुगी पावन सृष्टि) में चलने की तैयारी करो अर्थात पवित्र और योग-युक्त बनो क्योंकि अब निकट भविष्य में श्रीकृष्ण ( श्रीनारायण) का राज्य आने ही वाला है तथा इससे इस कलियुगी विकारी सृष्टि का महाविनाश एटम बमों, प्राकृतिक आपदाओ तथा गृह युद्ध से हो जायेगा। नीचे चित्र में श्रीकृष्ण को " विश्व के ग्लोब" के ऊपर मधुर बंशी बजाते हुए दिखाया है जिसका अर्थ यह है कि समस्त विश्व में "श्रीकृष्ण" ( श्रीनारायण) का एक छत्र राज्य होगा, एक धर्म होगा, एक भाषा और एक मत होगी तथा सम्पूर्ण खुशहाली, समृद्धि और सुख चैन की बंशी बजेगी।

बहुत-से लोगो की यह मान्यता है कि श्रीकृष्ण द्वापर युग के अंत में आते है। उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि श्रीकृष्ण तो सर्वगुण संपन्न, सोलह कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी एवं पूर्णत: पवित्र थे। तब भला उनका जन्म द्वापर युग की रजो प्रधान एवं विकारयुक्त सृष्टि में कैसे हो सकता है ? श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए सूरदास ने अपनी अपवित्र दृष्टी को समाप्त करने की कोशिश की और श्रीकृष्ण- भक्तिन मीराबाई ने पवित्र रहने के लिए जहर का प्याला पीना स्वीकार किया, तब भला श्रीकृष्ण देवता अपवित्र दृष्टी वाली सृष्टि में कैसे आ सकते है ? श्रीकृष्ण तो स्वयंबर के बाद श्रीनारायण कहलाये तभी तो श्रीकृष्ण के बुजुर्गी के चित्र नही मिलते। अत: श्रीकृष्ण अर्थात सतयुगी पावन सृष्टि के प्रारम्भ में आये थे और अब पुन: आने वाले हैं।

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आज के कोर्स से आपकी जिज्ञासाये समाधान ब्रह्माकुमारीज के 5

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पाँचवे दिन का कोर्स रिवीजन

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पांचवें दिन के कोर्स पर आधारित वस्तुनिष्ठ क्विज

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पाचवे दिन की क्विज

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Rajyog ki vidhi part 4 sis shivani

Rajyog ki vidhi part 5 sis shivani

Rajyog ki vidhi part 6 sis shivani

5th day video

Suraj bhai class- Life Balance

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Introduction Day 1 Day 2 Day 3 Day 4 Day 5 Day 6 Day 7 Spiritual Journey

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