Revision Course 4 R

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चौथे दिन के कोर्स का रिवीज़न

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आज के कोर्स के महत्वपूर्ण बिंदु इस तरह से हैं:-

परमात्मा शिव नई पवित्र सृष्टि रचने के लिए प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित हुए।उनके माध्यम से मूल गीता-ज्ञान तथा सहज राजयोग की शिक्षा दी, जिसे धारण करने वाले नर-नारी ब्रह्माकुमार/ कुमारी कहलाये।इस छोटे से युग को ‘संगम युग’, ‘धर्माऊ युग’, ‘पुरुषोत्तम युग’ अथवा ‘गीता युग’ भी कहा जा सकता है।

सतयुग में लक्ष्मी-नारायण का अटल, अखण्ड, निर्विघ्न और अति सुखकारी राज्य था।प्रसिद्ध है कि उस समय दूध और घी की नदियां बहती थी तथा शेर और गाय भी एक घाट पर पानी पीते थे।उस समय काम-क्रोधादि विकारों की लड़ाई अथवा हिंसा का तथा अशांति एवं दुखों का नाम-निशान भी नहीं था।

इस ‘संगमयुग’ में परमपिता परमात्मा मनुष्यात्माओं को ज्ञान और सहज राजयोग सिखाकर वापिस परमधाम अथवा ब्रह्मलोक में ले जाते है और अन्य मनुष्यात्माओं को सृष्टि के महाविनाश के द्वारा अशरीरी करके मुक्तिधाम ले जाते हैं।

वर्तमान समय यह संगम युग ही चल रहा है।अब यह कलियुगी सृष्टि नरक अर्थात दुःख धाम है अब निकट भविष्य में सतयुग आने वाला है जबकि यही सृष्टि सुखधाम होगी।अत: अब हमे पवित्र एवं योगी बनना चाहिए।

मनुष्यात्मा सारे कल्प में अधिक से अधिक कुल 84 जन्म लेती है, वह 84 लाख योनियों में पुनर्जन्म नहीं लेती। मनुष्यात्माओं के 84 जन्मों के चक्र को ही यहाँ 84 सीढ़ियों के रूप में चित्रित किया गया है।

सतयुग के 1250 वर्षों में श्रीलक्ष्मी, श्रीनारायण 100 प्रतिशत सुख-शान्ति-सम्पन्न 8 जन्म लेते है।इसलिए भारत में 8 की संख्या शुभ मानी गई है।उस समय के भारत को ‘स्वर्ग’,या ‘वैकुण्ठ’ कहा है उस समय सबकी औसत आयु १५० वर्ष थी उस युग के लोगो को ‘देवता वर्ण’ का कहा जाता है।

त्रेतायुग के 1250 वर्षों में वे 14 कला सम्पूर्ण सीता और रामचन्द्र के वंश में पूज्य राजा-रानी अथवा उच्च प्रजा के रूप में कुल 12 या 13 जन्म लेते है।

द्वापर में देह-अभिमान तथा काम क्रोधादि विकारों का प्रादुर्भाव हुआ।सृष्टि में दुःख और अशान्ति का भी राज्य शरू हुआ। उनसे बचने के लिए मनुष्य ने पूजा तथा भक्ति भी शुरू की।ऋषि लोग शास्त्रों की रचना करने लगे।

द्वापर युग के 1250 वर्षों में ऐसी पुजारी स्थिति में भिन्न-भिन्न नाम-रूप से, वैश्य-वंशी भक्त-शिरोमणि राजा-रानी अथवा सुखी प्रजा के रूप में कुल 21 जन्म लिए।

कलियुग के अन्त में देवी-देवता वंश के लोगों ने कुल 42 जन्म लिए।कलियुग के अन्त में सभी मनुष्य तमोप्रधान और आसुरी लक्षणों वाले होते है।

इस प्रकार देवता-वंश की आत्माएं 5000 वर्ष में अधिक से अधिक 84 जन्म लेती है। इसलिए भारत में जन्म-मरण के चक्र को “चौरासी का चक्कर” भी कहते है और कई देवियों के मंदिरों में 84 घंटे भी लगे होते हैं।

मनुष्यात्माएं पाशविक योनियों में जन्म नहीं लेती।यह हमारे लिए बहुत ही खुशी की बात है।परन्तु फिर भी कई लोग ऐसे है जो यह कहते कि मनुष्य आत्माएं पशु-पक्षी इत्यादि 84 लाख योनियों में जन्म-पुनर्जन्म लेती है।

सृष्टि नाटक में हर एक आत्मा का एक निश्चित समय पर परमधाम से इस सृष्टि रूपी नाटक के मंच पर आती है। सबसे पहले सतयुग और त्रेतायुग के सुन्दर दृश्य सामने आते है। इन दो युगों की सृष्टि में केवल "आ.स.दे. दे.वंश" की ही मनुष्यात्माओ का पार्ट होता है। और अन्य सभी धर्म-वंशो की आत्माए परमधाम में होती है।

द्वापरयुग में इसी धर्म की रजोगुणी अवस्था हो जाने से इब्राहीम द्वारा इस्लाम धर्म-वंश की, बुद्ध द्वारा बौद्ध-धर्म वंश की और ईसा द्वारा ईसाई धर्म की स्थापना होती है। अत: इन चार मुख्य धर्म वंशो के पिता ही संसार के मुख्य एक्टर्स है और इन चार धर्म के शास्त्र ही मुख्य शास्त्र है।

प्रजापिता बह्मा तथा जगदम्बा सरस्वती, जिन्हें ही "एडम" अथवा "इव" अथवा "आदम और हव्वा" भी कहा जाता है इस सृष्टि नाटक के नायक और नायिका है।क्योंकि इन्ही द्वारा स्वयं परमपिता परमात्मा शिव पृथ्वी पर स्वर्ग स्थापन करते है।इस प्रकार कलियुग के अंत में संगम पर जब परमात्मा अवतरित होते है, बहुत ही महत्वपूर्ण है।

ॐ शांति

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