Revision Course 6 R
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छठे दिन के कोर्स का रिवीज़न
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आज के कोर्स के प्रमुख बिन्दु इस तरह से हैं-
भारत में गीता ज्ञान को भगवान द्वारा दिया हुआ ज्ञान माना जाता है, फिर भी सभी यही मानते है गीता ज्ञान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग के अंत में युद्ध के मैदान में, अर्जुन के रथ पर सवार होकर दिया थाI
गीता-ज्ञान द्वापर युग में नही दिया गया बल्कि संगम युग में दिया गया I वास्तव में गीता-ज्ञान परमात्मा शिव ने दिया था और फिर गीता ज्ञान से सतयुग में श्रीकृष्ण का जन्म हुआI अत: गोपेश्वर परमपिता शिव श्रीकृष्ण के भी परलौकिक पिता है और गीता श्रीकृष्ण की भी माता है।
गीता में भगवान ने कहा है कि "मै अधर्म का विनाश तथा सत्यधर्म कि स्थापना के लिए ही अवतरित होता हूँ I" जो लोग यह मानते है कि भगवान ने गीता ज्ञान द्वापरयुग के अंत में दिया, उन्हें सोचना चाहिए कि क्या गीता ज्ञान देने और भगवान के अवतरित होने का यही फल हुआ ? क्या गीता ज्ञान देने के बाद अधर्म का युग प्रारम्भ हुआ ?
परमात्मा शिव ने इस सृष्टि रूपी कर्मक्षेत्र या कुरुक्षेत्र पर, प्रजापिता बह्मा (अर्जुन) के शरीर रूपी रथ में सवार होकर विकारो से ही युद्ध करने कि शिक्षा दी थी ,परन्तु लेखक ने बाद में अलंकारिक भाषा में इसका वर्णन किया तथा चित्रकारों ने बाद में शरीर को रथ के रूप में अंकित किया। बाद में वास्तविक अर्थ प्रायः विलुप्त हो गया I
परमपिता शिव के स्थान पर गीता-पुत्र श्रीकृष्ण देवता का नाम लिख देने के कारण गीता का ही खंडन हो गया और संसार में घोर अनर्थ और हाहाकार हो गया है।एक निराकार परमपिता की आज्ञा मन्मनाभव अर्थात एक मुझ को याद करो को भूलकर व्यभिचारी बुद्धि वाले हो गए है।
ब्रह्माकुमार दुसरों को भी शांति का मार्ग दर्शाना अपना कर्तव्य समझते है I ब्रह्माकुमार जन-जन को यह ज्ञान दे रहे है कि "शांति" पवित्र जीवन का एक फल है उसके लिए परमात्मा का परिचय जानना जरुरी हैI जिसके लिए राजयोग-केंद्र पर पधारने के लिए आमंत्रित करता है, जहाँ राजयोग के अभ्यास व इस कोर्स की जानकारी दी जाती है।
इस ज्ञान और योग को समझने का फल यह होता है कि कोई कार्यालय में काम कर रहा हो या रसोई में कार्यरत हो तो भी मनुष्य शांति के सागर परमात्मा के साथ स्वयं का सम्बन्ध स्थापित कर सकता है I इस सब का श्रेष्ठ परिणाम यह होता है कि सारा परिवार प्यार और शांति के सूत्र में बंध जाता है, दिव्य ज्ञान के द्वारा मनुष्य विकार तो छोड़ देता है और गुण धारण कर लेता है।
परमात्मा को याद करते समय हमे अपनी बुद्धि सब तरफ से हटाकर एक जोतिर्बिंदु परमात्मा शिव से जुटानी चाहिए। मन चंचल होने के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार अथवा शास्त्र और गुरुओ की तरफ भागता है I लेकिन अभ्यास के द्वारा हमें इसको एक परमात्मा की याद में ही स्थित करना है
राजयोग अभ्यास के लिए यह सोचना चाहिए कि- "मैं एक आत्मा हूँ, मैं ज्योति -बिंदु परमात्मा शिव की अविनाशी संतान हूँ। जो परमपिता ब्रह्मलोक के वासी है, शांति के सागर, आनंद के सागर प्रेम के सागर और सर्वशक्तिमान है --I" ऐसा मनन करते हुए मन को ब्रह्मलोक में परमपिता परमात्मा शिव पर स्थित करना चाहिए I
हमारा योग नही लगता इसका एक कारण तो यह है कि "आत्म-निश्चय" में स्थित न हो पाना।दूसरी बात परमात्मा को नाम-रूप से न्यारा व सर्वव्यापी मानना,अत: वे मन को कोई ठिकाना भी नही दे सकतेI तीसरी कि उन्हें परमात्मा के साथ अपने घनिष्ट सम्बन्ध का भी परिचय नही है, इसी कारण परमात्मा के प्रति उनके मन में घनिष्ठ स्नेह नही।
योग’ का अर्थ –
ज्ञान के सागर, शान्ति के सागर, आनन्द के सागर, प्रेम के सागर, सर्व शक्तिवान, पतितपावन परमात्मा शिव के साथ आत्मा का सम्बन्ध जोड़ना है, ताकि आत्मा को भी शान्ति, आनन्द, प्रेम, पवित्रता, शक्ति और दिव्यगुणों की विरासत प्राप्त हो
योग की उच्च स्थिति इन चार आधारभूत स्तम्भों पर टिकी होती है :-
ब्रह्मचर्य:-
योगी शारीरिक सुंदरता या वासना-भोग की और आकर्षित नहीं होता,क्योंकि उसका दृष्टि कोण बदल चुका होता है। वह आत्मा की सुंदरता को ही पूर्ण महत्व देता है। उसका मन ब्रह्म में स्थित होता है और वह देह की अपेक्षा आत्माभिमानी अवस्था में रहता है।
सात्विक आहार:-
मनुष्य जो आहार करता है उसका उसके मस्तिष्क पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है।इसलिए योगी मांस, अंडे उत्तेजक पेय या तम्बाकू नहीं लेता।अपना पेट पालने के लिए वह अन्य जीवों की हत्या नहीं करता, न ही वह अनुचित साधनों से धन कमाता है।
सत्संग:-
जैसा संग वैसा रंग’ इस कहावत के अनुसार योगी सदा इस बात का ध्यान रखता है कि उसका सदा ‘सत्-चित-आनन्द’ स्वरूप परमात्मा के साथ ही संग बना रहे। वह कभी भी कुसंग में अथवा अश्लील साहित्य अथवा कुविचरों में अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाता।
दिव्यगुण:-
योगी सदा अन्य आत्माओं को भी अपने दिव्य-गुणों, विचारों तथा दिव्य कर्मो की सुगंध से अगरबत्ती की तरह सुगन्धित करता रहता है, न कि आसुरी स्वभाव, विचार व कर्मो के वशीभूत होता है।
राजयोग के निरंतर अभ्यास से मनुष्य को अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती है। इन शक्तियों के द्वारा ही मनुष्य सांसारिक रुकावटों को पार करता हुआ आध्यात्मिक मार्ग की ओर अग्रसर होता है।वे शक्तियां हैं-
सिकोड़ने की शक्ति समेटने की शक्ति सहन शक्ति समाने की शक्ति इसके साथ परखने निर्णय सामना तथा सहयोग करने की शक्ति का भी विकास होता है।
यह सृष्टि ही घोर नरक बन गई है।इससे निकलकर हर कोई स्वर्ग में जाना चाहता है,लेकिन नरक से स्वर्ग की ओर का मार्ग कई रुकावटों से युक्त है। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार उसके रास्ते में मुख्य बाधा डालते है।
संगम युग में परमात्मा शिव जो सहज राजयोग की शिक्षा प्रजापिता ब्रह्मा के द्वारा दे रहे है, उसे धारण करने से ही मनुष्य इन प्रबल शत्रुओं (५ विकारों) को जीत सकता है।
इन विकारों पर विजय प्राप्त करके मनुष्य से देवता बनने वाले ही नर-नार स्वर्ग में जा सकते है, वरना हर एक व्यक्ति के मरने के बाद जो यह लिख दिया जाता है कि ‘वह स्वर्गवासी हुआ’, यह सरासर गलत है।
यदि हर कोई मरने के बाद स्वर्ग जा रहा होता तो जन-संख्या कम हो जाती और स्वर्ग में भीड़ लग जाती और मृतक के सम्बन्धी मातम न करते।
ॐ शांति
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